Shri Hit Ashram, Vrindavan, Mathura
!! श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी का परिचय !!
वर्तमान उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद ( प्राचीन देवबन ) नमक कस्बे में यजुर्वेदीय माध्यंदिनी शाखावर्ती कश्यप-श्रोतिय एक संभ्रांत गौढ़ ब्राह्मण परिवार चिरकाल से निवास करता था | इस परिवार में श्री व्यास मिश्र नाम के महानुभाव का धन-धान्य एवं वैभवसम्पन्न होने का वर्णन तथा तत्कालीन राजदरबार में सम्मानपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख परवर्ती साम्प्रदायिक वाणीग्रन्थों में प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होता है ; किन्तु कोई ऐसा ऐतिहासिक अभिलेख नहीं मिलता जिसे इस परिवार की वंशपरंपरा तथा ख्याति का प्रमाणिक आधार माना जाए | नाभा जी के भक्तमाल वाले छप्पय की रूपकला-टीका में भी इस बात का वर्णन है | किंवदंती है कि श्री व्यास मिश्र अपनी पत्नी सहित ब्रजयात्रा के लिए गए हुए थे | उस समय उनकी पत्नी आसन्नप्रसवा थीं | मथुरा की परिक्रमा करते समय वाद नामक गाँव में उन्हें प्रसव हुआ | यह वाद गाँव आज भी मथुरा से चार मील पर बसा हुआ है |
ब्रज मंडल के इसी वाद ग्राम श्री हरिवंश जी का जन्म विक्रम संवत् १५५९ में वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार को प्रातः सूर्योदयकाल में हुआ था | इनके जन्मसंवत् के सबन्ध में प्राचीन वाणियों में अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है, किन्तु बीच में कुछ विद्वानों ने संवत् १५३० को इनका जन्मसंवत् ठहराने का प्रयत्न किया है | संप्रदायानुवर्ती सज्जनों में भी इस संवत् के समर्थक पैदा हुए ओर फलत: जन्मसंवत् विवाद का प्रश्न बन गया | साम्रदायिक वाणियों में सर्वश्री अतिवल्लभजी, जयकृष्णजी, उत्तमदासजी आदि की प्रामाणिकता में किसी को संदेह नहीं ओर इन सभी वाणियों में संवत् १५५९ का ही उल्लेख है |
श्री हरिवंश जी के गुरु रूप में श्री राधा जी को ही स्वीकार किया जाता है | नागरीदास जी ने भी अपने 'अष्टक' में श्रे राधा को ही हरिवंश जी का गुरु बताया है | जतनलालजी ने अपने 'रसिक-अनन्यसार' में गुरु-प्रसंग-वर्णन में राधा का नाम लिखा है | चाचा वृन्दावनदासजी ने 'श्री हितहरिवंश सहस्रनाम' में लिखा है कि श्री राधा ने प्रसन्न होकर इन्हें माहिली ( अंतरंग ) बनाया ओर अपनी दीक्षा दी | इसके अतिरिक्त सेवकजी, ध्रुवदासजी तथा व्यासजी ने भी राधा को ही महाप्रभु हित हरिवंश का गुरु माना है | यदि कोई अन्य व्यक्ति गुरु होता तो उसका उल्लेख कहीं न कहीं अवश्य होता |
१६ वर्ष की आयु में हरिवंशजी का विवाह श्री रुकिमणी देवी के साथ सम्पन्न हुआ | गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी इन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नहीं किया | गृहस्थाश्रम के समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ये सच्चे रूप में भक्त और संत बने रहे | गृहस्थ जीवन के प्रति इनके मन में न तो वैराग्य भावना थी ओर न ये इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही रखते थे | श्रीमती रुकिमणी देवी से इनके एक पुत्री ओर तीन पुत्र उत्पन्न हुए | संतति के जन्मसंवत् प्राचीन वाणियों में इस प्रकार उपलब्ध होते है - ज्येष्ठ पुत्र श्रीवनचन्द्रजी संवत् १५८५, द्वितीय पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र संवत् १५८७, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी संवत् १५८८ तथा पुत्री साहिब दे संवत् १५८९ में उत्पन्न हुई | श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का निकुंजगमन संवत् १५८९ में तथा पिता श्री व्यास मिश्र संवत् १५९० में हुआ | माता पिता की मृत्यु के उपरांत श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्तिपद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें |
स्थायी रूप से वृन्दावन वास करने का निश्चय करने के बाद श्री हरिवंशजी ने कदाचित् वैष्णव धर्म में प्रचलित समस्त साधनापद्धतियों का अनुशालिन किया होगा ओर इस मनन-अध्ययन के बाद अपनी नूतन साधनापद्धति प्रवर्तित की होगी | परंपरा से जो साधनापद्धतियाँ वैष्णव-सम्प्रदायों में प्रचलित थी उनमें विधि निषेध के साथ कर्मकांड का प्रभाव बढ़ गया था ओर ब्रह्माचार की अनेक परिपाटियाँ प्रचलित हो गई थीं | उन्हें सवीकार न करके श्री हरिवंशजी ने स्वकीय नूतन सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया ओर अनेक बातों में सर्वथा अभिनव शैली स्वीकार की | इस मार्ग में विधि-निषेध की न्यूनता के साथ भक्ति में प्रेमभाव की प्रबल साधना थी | प्रेम को रस के रूप में अपनाकर इस मार्ग को रस मार्ग कहा गया | अत: जनसाधारण को इसमें अधित आकर्षण प्रतीत हुआ | भक्ति ओर प्रेम के मार्ग में श्री जी की सेवा उपासना का सुयोग पाकर श्रद्धालु जनता एक साथ गौस्वामी हरिवंशजी द्वारा प्रवर्तित मार्ग पर चल पड़ी ओर दूर-दूर तक इनकी साधना पद्धति का प्रचार हो गया | श्री हरिवंशजी के सुंदर रूप, गुण, शील पर मुग्ध होकर ब्रजवासियों ने इस को कृष्ण की वंशी का साक्षात् अवतार माना और इनकी सरल वाणी को वंशीध्वनि के अनुरूप गोपियों को मोहनेवाली समझा | वंशी के अवतार रूप में इनका परवर्ती वाणियों में अत्यधिक वर्णन हुआ है |
प्राचीन वाणियों के आधार पर श्री हरिवंश जी के निकुञ्जगमन की तिथि संवत् १६०९ ठहराती है | आशिवन मास की शरत्पुर्णिमा के दिन इन्होनें इहलोकलीला संवरण की |
गौस्वामी हित हरिवंशजी रचित दो हिंदी ग्रंथ, दो संस्कृत ग्रंथ और दो गद्यपत्र अद्यावधि उपलब्ध हैं | हिंदी ग्रंथों में 'हितचौरासी' ओर 'स्फुट वाणी' है संस्कृत ग्रंथो में 'राधासुधानिधि' तथा 'यमुनाष्टक' हैं एवं विट्ठलदासजी को लिखे गए दो गद्य-पत्र हैं | उपर्युक्त सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं |
१ - राधासुधानिधि - यह संस्कृत में लिखा हुआ एक स्तोत्रकाव्य है जिसमें २७० श्लोक हैं | राधा की वंदना, उपासना, प्रशस्ति, सेवा, पूजा, भक्ति, सामीप्य, सौन्दर्य आदि के विविध वर्णनों परिपूर्ण यह ग्रंथ अपनी इष्ट - अनन्यता के लिए साम्प्रदायिक भक्तिकाव्यों में श्रेष्ठतम स्तोत्रकाव्य समझा जाता है | इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का उल्लेख अनेक अंग्रेज और भारतीय विद्वानों ने दिया है | इंडिया आफिस के हस्तलिखित ग्रंथों के सूचि पत्र में इसका उल्लेख है और इसमें इसके प्रणेता का नाम श्री हितहरिवंश दिया है
२ - यमुनाष्टक - यह यमुना की वंदना में लिखा हुआ आठ श्लोकों का प्रशस्तिकाव्य है | इसमें दुरंत मोह का भंजन करने वाली कालिंदनंदिनी यमुना का भजन किया गया है | यमुना की प्रशास्ति में जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है, वे सार्थक ओर अर्थ-गर्भ हैं, उनके मर्म को समझ कर ही इस काव्य का आनंद उपलब्ध होता है | अष्टक के दुसरे श्लोक में यमुना के लिए जो विशेषण प्रस्तुत हुए हैं उनकी अर्थगर्भ शैली का अनुसरण करने पर राधावल्लभीय उपास्यत्व का भी संकेत मिलता है|
३ - हितचौरासी - श्री हित हरिवंशजी रचित चौरासी पदों के संग्रह का नाम 'हितचौरासी' है | राधावल्लभ-सम्प्रदाय का मूल ग्रन्थ यही है इसी ग्रन्थ के आधार पर परवर्ती भक्त-महात्माओं ने राधावल्लाभीय तत्व को ह्रदयंगम किया है | सम्प्रदाय में इस ग्रंथ को मूलाधार मानकर सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है | इस ग्रंथ के ८४ पदों में हरिवंशजी ने ब्रजभाषा का समस्त माधुर्य उड़ेल दिया है |
इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्राचीन प्रति १७ वीं शती की मिलती है | ८४ पदों के कारण प्रारंभ में कुछ लोगों की ग्रंथ को बिना देखे ऐसी धारणा रही कि यह ग्रंथ चौरासी भक्तों का वर्णन करने के लिए किया गया है, किन्तु भक्तों के चरित्रवर्णन से इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है | यह तो शुद्ध रसपद्धति से लिखा गया मुक्तक पदों का संकलन है जिसे राधा-भाव-परक प्रेमलक्षणा-भक्ति का ग्रंथ ही कहा जाना चाहिए | ८४ योनियों में चक्कर काटने वाले प्राणी को मुक्त करने के लिए ८४ पदों का संकलन किया गया, ऐसा भी कुछ विद्वान मानते हैं |
हितचौरासी का प्रतिपाद्य - 'हितचौरासी' एक मुक्तक पदरचना है जिसमें भाव वास्तु का कोई व्यक्त कोटिक्रम नहीं है | समय प्रबंध की दृष्टि से कुछ महानुभावों ने कालक्रम निर्धारित करने की चेष्टा की है जो अनिवार्य रूप से मान्य नहीं कही जा सकती |
श्रंगार रस की पृष्ठ भूमि पर उन विषयों को इन पदों में हित हरिवंश जी ने प्रस्तुत किया है जो राधावल्लभ सम्प्रदाय के मेरुदंड हैं अर्थात् राधाकृष्ण का अनन्य प्रेम, नित्य-विहार, रासलीला, भक्तिभावना, प्रेम में मान, विरह की स्थिति, राधावल्लभ का यथार्थ सवरूप, नित्य विहार के चतुव्र्यु हात्म्क अवयवों का वर्णन आदि ही इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य है |
४ - स्फुट वाणी - स्फुट वाणी में २७ पद संकलित जो सिद्धांत प्रतिपादन से साक्षात् सम्बन्ध रखने वाले हैं | 'हितचौरासी' में परोक्ष रूप से यत्र-तत्र सिद्धांत वर्णित हुए हैं, किन्तु 'स्फुट वाणी' में प्रेम, अनन्यता, राधा भक्ति, जीवनोउद्देश्य आदि विषयों का प्रत्यक्ष रूप से प्रतिपादन हुआ है | हित हरिवंशजी की रचनाओं में 'हितचौरासी' के बाद इसी वाणी का स्थान है | परिष्कृत ब्रजभाषा की रचना होने के कारण इसका पर्याप्त प्रचार हुआ है | इसके पदों का वर्गीकरण इस प्रकार है - चार सवैया, दो छप्पय, दो कुण्डलियाँ, १५ पद ( रागबद्ध ), चार दोहे - कुल दोहे - २७ | विषय की दृष्टि से इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है - चार दोहे ओर दो कुण्डलियाँ सिद्धांत, सात पद अनन्य निष्ठा, चार पद उपदेश, पाँच पद कृष्णजन्म और राधा रूप वर्णन, तीन पद विहार, दो पद गोपाल की आरती कुल योग २७ |
श्री हरिवंश जी की वाणी भक्तिरस से आप्लावित मुक्तक गेय पदों का संग्रह है | भक्तिभावना से अनुप्राणित इन पदों में शास्त्रानुमोदित काव्य-सौष्ठव का संधान करना इन पदों की मूल भावना के साथ अन्याय करना होगा, किन्तु भावुक एवं सह्रदय भक्तों की रसस्निग्ध वाणी केवल शिवत्व से ही परिपूर्ण नहीं होती वरन् सत्य ओर सौन्दर्य को भी अपने अंचल मे छिपाए रहती है | अत: काव्योत्कर्ष के समस्त अलंकृत उपकरण इसमें अनायास आ जाते है |
काव्य की आत्मा रस है, हरिवंश जी वाणी का मूलाधार भी रस ही है | काव्यरस सह्रदयों के चित्त को विस्फारित एवं चमत्कृत करता हुआ अलौकिक आनन्द की सृष्टि करता है हरिवंश जी की वाणी का रस भी रसिक भक्तों को प्रेमविह्रल करके आनन्दविभोर बना देता है | काव्या नन्द ब्रह्मानन्द सहोदर है, हरिवंश जी की वाणी का आनन्द साक्षात् ब्रह्मानन्द का ही रूप है | काव्य के लोकिक आलम्बन नायक-नायिका, रति, हास, शोक, आदि भावों को उदबुद्ध करने मे सहायक होते है, भक्त वाणी का आलम्बन लौकिक नायक-नायिका न होकर आमुष्मिक रति ( राधा-कृष्ण-रति ) को जागृत कर चित्त को शाश्वत शांति प्रदान करता है | भक्ति रस को सवीकार करने वाले मर्मी भक्तों को भवबन्धन से मुक्त कर उसे एक ऐसे आनन्द लोक में ले जाना है जहाँ सांसारिक मायावी प्रपंच के बन्धन उच्छिन हो जाते हैं भक्त के मन में एकान्त अनाविल राधा-कृष्ण-रति का अपार-पारावार लहराने लगता है | उस अगाध ओर भक्तिसागर में कूद पड़ने के बाद संसारसागर के किनारे विलीन हो जाते है, सांसारिक मर्यादाएँ ढह जाती है ओर भक्त का मन विशुद्ध आत्मचैतन्य में लीन होकर शाश्वत आनन्द की उपलब्धि करने लगता है
श्री हरिवंश जी संस्कृत भाषा के पंडित ही नहीं, निसर्गसिद्ध कवि भी थे | संस्कृत के लालित्य ओर सौकुमार्य की छटा उनके 'राधासुधानिधि' ग्रन्थ में देखी जा सकती है संस्कृत भाषा में पारंगत होने पर भी उनकी नैसर्गिक अभिव्यक्ति का रूप हमें उनकी ब्रजभाषा की पद रचना में ही दृष्टिगत होता है | जो माधुर्य, सौकुमार्य, प्रवाह, भाव-व्यंजकता, प्रांजलता ओर प्रेषणीयता उनके 'हितचौरासी' ग्रंथ में है उसका अर् ररधा्ररद्धाश भी 'राधासुधानिधि' में नहीं मिलता | 'हितचौरासी' के पदों का पाठ करने के साथ ही मन में उस भाषा की प्रेषणीयता और भावग्रहिणी क्षमता के कारण अभिव्यंग वर्ण्य विषय का चित्र मूर्तिमान हो जाता है | ब्रजभाषा का जैसा प्रांजल रूप हितहरिवंशजी की वाणी में प्रस्फुटित हुआ है, वैसा किसी अन्य भक्त कवि की रचना में नहीं हुआ | हमारे इस कथन को कदाचित् पक्षपातपूर्ण समझा जाए ओर सूरदास तथा नन्ददास जैसे सुप्रसिद्ध कवियों की ब्रज भाषा को इनसे बढ़ कर बताया जाए, किन्तु समीक्षा की कसौटी पर हमारा कथन खरा उतरेगा | सूरदास की भाषा में ब्रजभाषा का आंचलिक पूट है, लोक भाषा के अधिक समीप होने के कारन मसृण और परिष्कृत शब्दों की ओर उनका झुकाव नहीं है | नन्ददास ने अवश्य शब्दचयन में परिष्कार पर बल दिया है ओर शब्द मैत्री तथा ध्वन्यात्मक नाद सौन्दर्य को अपनाकर 'नन्ददास जड़िया' का पद पाया है, किन्तु नन्ददास की भाषा में हितहरिवंश के समान समृद्धता नहीं है | संस्कृत की तत्सम पदावली को ब्रजभाषा के प्रवाह में ढालने की कला में हरिवंशजी को अद्भुत क्षमता प्राप्त है | वे ब्रजभाषा के क्रियापद तथा विभक्तियों के योग से ही सारे पद को तत्सम शैली के ढांचे में इस सौष्ठव के साथ जड़ते हैं कि पाठक भावधारा में बहने के साथ पदावली के लालित्य पर भी मुग्ध हो उठता है | संस्कृत कवि जयदेव की पदावली से विद्यापति ने प्रभाव ग्रहण किया था | हरिवंश जी ने जयदेव और विद्यापति दोनों की पदावली से प्रभाव ग्रहण करके उसे ब्रजभाषा के कलेवर में अभिनव रूप दिया | शब्दमैत्री, समीचीन वर्णविन्यास, नाद सौन्दर्य, चित्रात्मकता और प्रांजलता हरिवंश जी की ब्रजभाषा के उल्लेख्य गुण हैं जो उनको ब्रजभाषा के भक्त कवियों में मूर्धन्य पद पर आसीन करने में पूरी तरह सहायक होते है |
ब्रज मंडल के इसी वाद ग्राम श्री हरिवंश जी का जन्म विक्रम संवत् १५५९ में वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार को प्रातः सूर्योदयकाल में हुआ था | इनके जन्मसंवत् के सबन्ध में प्राचीन वाणियों में अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है, किन्तु बीच में कुछ विद्वानों ने संवत् १५३० को इनका जन्मसंवत् ठहराने का प्रयत्न किया है | संप्रदायानुवर्ती सज्जनों में भी इस संवत् के समर्थक पैदा हुए ओर फलत: जन्मसंवत् विवाद का प्रश्न बन गया | साम्रदायिक वाणियों में सर्वश्री अतिवल्लभजी, जयकृष्णजी, उत्तमदासजी आदि की प्रामाणिकता में किसी को संदेह नहीं ओर इन सभी वाणियों में संवत् १५५९ का ही उल्लेख है |
श्री हरिवंश जी के गुरु रूप में श्री राधा जी को ही स्वीकार किया जाता है | नागरीदास जी ने भी अपने 'अष्टक' में श्रे राधा को ही हरिवंश जी का गुरु बताया है | जतनलालजी ने अपने 'रसिक-अनन्यसार' में गुरु-प्रसंग-वर्णन में राधा का नाम लिखा है | चाचा वृन्दावनदासजी ने 'श्री हितहरिवंश सहस्रनाम' में लिखा है कि श्री राधा ने प्रसन्न होकर इन्हें माहिली ( अंतरंग ) बनाया ओर अपनी दीक्षा दी | इसके अतिरिक्त सेवकजी, ध्रुवदासजी तथा व्यासजी ने भी राधा को ही महाप्रभु हित हरिवंश का गुरु माना है | यदि कोई अन्य व्यक्ति गुरु होता तो उसका उल्लेख कहीं न कहीं अवश्य होता |
१६ वर्ष की आयु में हरिवंशजी का विवाह श्री रुकिमणी देवी के साथ सम्पन्न हुआ | गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी इन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नहीं किया | गृहस्थाश्रम के समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ये सच्चे रूप में भक्त और संत बने रहे | गृहस्थ जीवन के प्रति इनके मन में न तो वैराग्य भावना थी ओर न ये इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही रखते थे | श्रीमती रुकिमणी देवी से इनके एक पुत्री ओर तीन पुत्र उत्पन्न हुए | संतति के जन्मसंवत् प्राचीन वाणियों में इस प्रकार उपलब्ध होते है - ज्येष्ठ पुत्र श्रीवनचन्द्रजी संवत् १५८५, द्वितीय पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र संवत् १५८७, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी संवत् १५८८ तथा पुत्री साहिब दे संवत् १५८९ में उत्पन्न हुई | श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का निकुंजगमन संवत् १५८९ में तथा पिता श्री व्यास मिश्र संवत् १५९० में हुआ | माता पिता की मृत्यु के उपरांत श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्तिपद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें |
स्थायी रूप से वृन्दावन वास करने का निश्चय करने के बाद श्री हरिवंशजी ने कदाचित् वैष्णव धर्म में प्रचलित समस्त साधनापद्धतियों का अनुशालिन किया होगा ओर इस मनन-अध्ययन के बाद अपनी नूतन साधनापद्धति प्रवर्तित की होगी | परंपरा से जो साधनापद्धतियाँ वैष्णव-सम्प्रदायों में प्रचलित थी उनमें विधि निषेध के साथ कर्मकांड का प्रभाव बढ़ गया था ओर ब्रह्माचार की अनेक परिपाटियाँ प्रचलित हो गई थीं | उन्हें सवीकार न करके श्री हरिवंशजी ने स्वकीय नूतन सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया ओर अनेक बातों में सर्वथा अभिनव शैली स्वीकार की | इस मार्ग में विधि-निषेध की न्यूनता के साथ भक्ति में प्रेमभाव की प्रबल साधना थी | प्रेम को रस के रूप में अपनाकर इस मार्ग को रस मार्ग कहा गया | अत: जनसाधारण को इसमें अधित आकर्षण प्रतीत हुआ | भक्ति ओर प्रेम के मार्ग में श्री जी की सेवा उपासना का सुयोग पाकर श्रद्धालु जनता एक साथ गौस्वामी हरिवंशजी द्वारा प्रवर्तित मार्ग पर चल पड़ी ओर दूर-दूर तक इनकी साधना पद्धति का प्रचार हो गया | श्री हरिवंशजी के सुंदर रूप, गुण, शील पर मुग्ध होकर ब्रजवासियों ने इस को कृष्ण की वंशी का साक्षात् अवतार माना और इनकी सरल वाणी को वंशीध्वनि के अनुरूप गोपियों को मोहनेवाली समझा | वंशी के अवतार रूप में इनका परवर्ती वाणियों में अत्यधिक वर्णन हुआ है |
प्राचीन वाणियों के आधार पर श्री हरिवंश जी के निकुञ्जगमन की तिथि संवत् १६०९ ठहराती है | आशिवन मास की शरत्पुर्णिमा के दिन इन्होनें इहलोकलीला संवरण की |
गौस्वामी हित हरिवंशजी रचित दो हिंदी ग्रंथ, दो संस्कृत ग्रंथ और दो गद्यपत्र अद्यावधि उपलब्ध हैं | हिंदी ग्रंथों में 'हितचौरासी' ओर 'स्फुट वाणी' है संस्कृत ग्रंथो में 'राधासुधानिधि' तथा 'यमुनाष्टक' हैं एवं विट्ठलदासजी को लिखे गए दो गद्य-पत्र हैं | उपर्युक्त सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं |
१ - राधासुधानिधि - यह संस्कृत में लिखा हुआ एक स्तोत्रकाव्य है जिसमें २७० श्लोक हैं | राधा की वंदना, उपासना, प्रशस्ति, सेवा, पूजा, भक्ति, सामीप्य, सौन्दर्य आदि के विविध वर्णनों परिपूर्ण यह ग्रंथ अपनी इष्ट - अनन्यता के लिए साम्प्रदायिक भक्तिकाव्यों में श्रेष्ठतम स्तोत्रकाव्य समझा जाता है | इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का उल्लेख अनेक अंग्रेज और भारतीय विद्वानों ने दिया है | इंडिया आफिस के हस्तलिखित ग्रंथों के सूचि पत्र में इसका उल्लेख है और इसमें इसके प्रणेता का नाम श्री हितहरिवंश दिया है
२ - यमुनाष्टक - यह यमुना की वंदना में लिखा हुआ आठ श्लोकों का प्रशस्तिकाव्य है | इसमें दुरंत मोह का भंजन करने वाली कालिंदनंदिनी यमुना का भजन किया गया है | यमुना की प्रशास्ति में जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है, वे सार्थक ओर अर्थ-गर्भ हैं, उनके मर्म को समझ कर ही इस काव्य का आनंद उपलब्ध होता है | अष्टक के दुसरे श्लोक में यमुना के लिए जो विशेषण प्रस्तुत हुए हैं उनकी अर्थगर्भ शैली का अनुसरण करने पर राधावल्लभीय उपास्यत्व का भी संकेत मिलता है|
३ - हितचौरासी - श्री हित हरिवंशजी रचित चौरासी पदों के संग्रह का नाम 'हितचौरासी' है | राधावल्लभ-सम्प्रदाय का मूल ग्रन्थ यही है इसी ग्रन्थ के आधार पर परवर्ती भक्त-महात्माओं ने राधावल्लाभीय तत्व को ह्रदयंगम किया है | सम्प्रदाय में इस ग्रंथ को मूलाधार मानकर सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है | इस ग्रंथ के ८४ पदों में हरिवंशजी ने ब्रजभाषा का समस्त माधुर्य उड़ेल दिया है |
इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्राचीन प्रति १७ वीं शती की मिलती है | ८४ पदों के कारण प्रारंभ में कुछ लोगों की ग्रंथ को बिना देखे ऐसी धारणा रही कि यह ग्रंथ चौरासी भक्तों का वर्णन करने के लिए किया गया है, किन्तु भक्तों के चरित्रवर्णन से इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है | यह तो शुद्ध रसपद्धति से लिखा गया मुक्तक पदों का संकलन है जिसे राधा-भाव-परक प्रेमलक्षणा-भक्ति का ग्रंथ ही कहा जाना चाहिए | ८४ योनियों में चक्कर काटने वाले प्राणी को मुक्त करने के लिए ८४ पदों का संकलन किया गया, ऐसा भी कुछ विद्वान मानते हैं |
हितचौरासी का प्रतिपाद्य - 'हितचौरासी' एक मुक्तक पदरचना है जिसमें भाव वास्तु का कोई व्यक्त कोटिक्रम नहीं है | समय प्रबंध की दृष्टि से कुछ महानुभावों ने कालक्रम निर्धारित करने की चेष्टा की है जो अनिवार्य रूप से मान्य नहीं कही जा सकती |
श्रंगार रस की पृष्ठ भूमि पर उन विषयों को इन पदों में हित हरिवंश जी ने प्रस्तुत किया है जो राधावल्लभ सम्प्रदाय के मेरुदंड हैं अर्थात् राधाकृष्ण का अनन्य प्रेम, नित्य-विहार, रासलीला, भक्तिभावना, प्रेम में मान, विरह की स्थिति, राधावल्लभ का यथार्थ सवरूप, नित्य विहार के चतुव्र्यु हात्म्क अवयवों का वर्णन आदि ही इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य है |
४ - स्फुट वाणी - स्फुट वाणी में २७ पद संकलित जो सिद्धांत प्रतिपादन से साक्षात् सम्बन्ध रखने वाले हैं | 'हितचौरासी' में परोक्ष रूप से यत्र-तत्र सिद्धांत वर्णित हुए हैं, किन्तु 'स्फुट वाणी' में प्रेम, अनन्यता, राधा भक्ति, जीवनोउद्देश्य आदि विषयों का प्रत्यक्ष रूप से प्रतिपादन हुआ है | हित हरिवंशजी की रचनाओं में 'हितचौरासी' के बाद इसी वाणी का स्थान है | परिष्कृत ब्रजभाषा की रचना होने के कारण इसका पर्याप्त प्रचार हुआ है | इसके पदों का वर्गीकरण इस प्रकार है - चार सवैया, दो छप्पय, दो कुण्डलियाँ, १५ पद ( रागबद्ध ), चार दोहे - कुल दोहे - २७ | विषय की दृष्टि से इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है - चार दोहे ओर दो कुण्डलियाँ सिद्धांत, सात पद अनन्य निष्ठा, चार पद उपदेश, पाँच पद कृष्णजन्म और राधा रूप वर्णन, तीन पद विहार, दो पद गोपाल की आरती कुल योग २७ |
श्री हरिवंश जी की वाणी भक्तिरस से आप्लावित मुक्तक गेय पदों का संग्रह है | भक्तिभावना से अनुप्राणित इन पदों में शास्त्रानुमोदित काव्य-सौष्ठव का संधान करना इन पदों की मूल भावना के साथ अन्याय करना होगा, किन्तु भावुक एवं सह्रदय भक्तों की रसस्निग्ध वाणी केवल शिवत्व से ही परिपूर्ण नहीं होती वरन् सत्य ओर सौन्दर्य को भी अपने अंचल मे छिपाए रहती है | अत: काव्योत्कर्ष के समस्त अलंकृत उपकरण इसमें अनायास आ जाते है |
काव्य की आत्मा रस है, हरिवंश जी वाणी का मूलाधार भी रस ही है | काव्यरस सह्रदयों के चित्त को विस्फारित एवं चमत्कृत करता हुआ अलौकिक आनन्द की सृष्टि करता है हरिवंश जी की वाणी का रस भी रसिक भक्तों को प्रेमविह्रल करके आनन्दविभोर बना देता है | काव्या नन्द ब्रह्मानन्द सहोदर है, हरिवंश जी की वाणी का आनन्द साक्षात् ब्रह्मानन्द का ही रूप है | काव्य के लोकिक आलम्बन नायक-नायिका, रति, हास, शोक, आदि भावों को उदबुद्ध करने मे सहायक होते है, भक्त वाणी का आलम्बन लौकिक नायक-नायिका न होकर आमुष्मिक रति ( राधा-कृष्ण-रति ) को जागृत कर चित्त को शाश्वत शांति प्रदान करता है | भक्ति रस को सवीकार करने वाले मर्मी भक्तों को भवबन्धन से मुक्त कर उसे एक ऐसे आनन्द लोक में ले जाना है जहाँ सांसारिक मायावी प्रपंच के बन्धन उच्छिन हो जाते हैं भक्त के मन में एकान्त अनाविल राधा-कृष्ण-रति का अपार-पारावार लहराने लगता है | उस अगाध ओर भक्तिसागर में कूद पड़ने के बाद संसारसागर के किनारे विलीन हो जाते है, सांसारिक मर्यादाएँ ढह जाती है ओर भक्त का मन विशुद्ध आत्मचैतन्य में लीन होकर शाश्वत आनन्द की उपलब्धि करने लगता है
श्री हरिवंश जी संस्कृत भाषा के पंडित ही नहीं, निसर्गसिद्ध कवि भी थे | संस्कृत के लालित्य ओर सौकुमार्य की छटा उनके 'राधासुधानिधि' ग्रन्थ में देखी जा सकती है संस्कृत भाषा में पारंगत होने पर भी उनकी नैसर्गिक अभिव्यक्ति का रूप हमें उनकी ब्रजभाषा की पद रचना में ही दृष्टिगत होता है | जो माधुर्य, सौकुमार्य, प्रवाह, भाव-व्यंजकता, प्रांजलता ओर प्रेषणीयता उनके 'हितचौरासी' ग्रंथ में है उसका अर् ररधा्ररद्धाश भी 'राधासुधानिधि' में नहीं मिलता | 'हितचौरासी' के पदों का पाठ करने के साथ ही मन में उस भाषा की प्रेषणीयता और भावग्रहिणी क्षमता के कारण अभिव्यंग वर्ण्य विषय का चित्र मूर्तिमान हो जाता है | ब्रजभाषा का जैसा प्रांजल रूप हितहरिवंशजी की वाणी में प्रस्फुटित हुआ है, वैसा किसी अन्य भक्त कवि की रचना में नहीं हुआ | हमारे इस कथन को कदाचित् पक्षपातपूर्ण समझा जाए ओर सूरदास तथा नन्ददास जैसे सुप्रसिद्ध कवियों की ब्रज भाषा को इनसे बढ़ कर बताया जाए, किन्तु समीक्षा की कसौटी पर हमारा कथन खरा उतरेगा | सूरदास की भाषा में ब्रजभाषा का आंचलिक पूट है, लोक भाषा के अधिक समीप होने के कारन मसृण और परिष्कृत शब्दों की ओर उनका झुकाव नहीं है | नन्ददास ने अवश्य शब्दचयन में परिष्कार पर बल दिया है ओर शब्द मैत्री तथा ध्वन्यात्मक नाद सौन्दर्य को अपनाकर 'नन्ददास जड़िया' का पद पाया है, किन्तु नन्ददास की भाषा में हितहरिवंश के समान समृद्धता नहीं है | संस्कृत की तत्सम पदावली को ब्रजभाषा के प्रवाह में ढालने की कला में हरिवंशजी को अद्भुत क्षमता प्राप्त है | वे ब्रजभाषा के क्रियापद तथा विभक्तियों के योग से ही सारे पद को तत्सम शैली के ढांचे में इस सौष्ठव के साथ जड़ते हैं कि पाठक भावधारा में बहने के साथ पदावली के लालित्य पर भी मुग्ध हो उठता है | संस्कृत कवि जयदेव की पदावली से विद्यापति ने प्रभाव ग्रहण किया था | हरिवंश जी ने जयदेव और विद्यापति दोनों की पदावली से प्रभाव ग्रहण करके उसे ब्रजभाषा के कलेवर में अभिनव रूप दिया | शब्दमैत्री, समीचीन वर्णविन्यास, नाद सौन्दर्य, चित्रात्मकता और प्रांजलता हरिवंश जी की ब्रजभाषा के उल्लेख्य गुण हैं जो उनको ब्रजभाषा के भक्त कवियों में मूर्धन्य पद पर आसीन करने में पूरी तरह सहायक होते है |
नमूने के रूप में संस्कृत तथा ब्रजभाषा में विरचित इनके भक्तिभाव व्यंजक कुछ छन्द प्रस्तुत हैं ---
१
पत्रावालीं रचयितुं कुचयो: कपोले -
बद्धुं विचित्र कबरी नव मल्लिकाभि: |
अंगञ्च भूषयतु आभरणै: धृताशे -
श्री राधिके मयि विधेहि कृपा कटाक्षम् ||
२
संकेत कुञ्ज निलये मृदु पल्लवेन -
क्लृप्ते कदापि नवसंग भयत्र पाढ़याम् |
अत्याग्रहेण करवा रिरू हे गृहीत्वा
नेष्ये विरेन्द्र शयने वृषभानु पुत्रीम् ||
३
ब्रज नव तरुनि कदम्ब मुकुट मनि स्यामा आजू बनी |
नखसिख लौं अँग-अँग-माधुरी मोहे स्याम धनी ||
यौं राजत कबरी गूथित कच कनक कंज बदनी |
चिकुर चंद्रकनि बीच अरध बिधु मानौ ग्रसत फनी ||
( जै श्री ) हित हरिवंश प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी |
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर बिस्व-दुरित-दवनी ||
१
पत्रावालीं रचयितुं कुचयो: कपोले -
बद्धुं विचित्र कबरी नव मल्लिकाभि: |
अंगञ्च भूषयतु आभरणै: धृताशे -
श्री राधिके मयि विधेहि कृपा कटाक्षम् ||
२
संकेत कुञ्ज निलये मृदु पल्लवेन -
क्लृप्ते कदापि नवसंग भयत्र पाढ़याम् |
अत्याग्रहेण करवा रिरू हे गृहीत्वा
नेष्ये विरेन्द्र शयने वृषभानु पुत्रीम् ||
३
ब्रज नव तरुनि कदम्ब मुकुट मनि स्यामा आजू बनी |
नखसिख लौं अँग-अँग-माधुरी मोहे स्याम धनी ||
यौं राजत कबरी गूथित कच कनक कंज बदनी |
चिकुर चंद्रकनि बीच अरध बिधु मानौ ग्रसत फनी ||
( जै श्री ) हित हरिवंश प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी |
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर बिस्व-दुरित-दवनी ||
Biography of Shree Hith Harivansh Mahaprabhu ji in Hindi Language
!! Shri Hith Harivansh Mahaprabhu Ji Photo !!
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