Shri Hit Ashram, Vrindavan, Mathura
!! श्री हित सेवक दास जु महाराज !!
हित की उपासना का आधार कहे जाने वाले श्री दामोदर दास ‘सेवक जी’ महाराज का जन्म
सम्वत् 1575 वि. की श्रावण-शुक्ल-तृतीया को एक पवित्र एवं विद्वान् ब्राह्मण के
यहाँ गढ़ा धाम में हुआ। आपके पिता दो भाई थे। दोनों भाइयों से दो सन्तानें हुई बड़े भाई से
चतुर्भुजदास और छोटे से श्री दामोदर दास बचपन से ही दोनों बालक होनहार मेधावी और
सुन्दर थे समय बीतने के साथ दोनोंभ्राता निरन्तर भजन-पूजन, कथा कीर्तन में ही अपना
सारा समय बिताने लगे। बाल्यकाल में दोनों भ्राताओं को भक्ति-शास्त्रों की सुंदर शिक्षा
प्रदान की गई जिससे उनका संतों के प्रति अनुराग बढ़ा उन दिनों धर्म का प्रसार करने
के लिए आचार्य एवं संत महात्मागण अपने साथ बहुत से सन्तों को लेकर जमात बनाकर
स्वतंत्र भाव से यहाँ-वहाँ विचरण किया करते थे। श्री वृंदावन की एक साधुमण्डली ने इन भक्त
भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर इनके घर निवास किया। इन्होंने भी सन्तों की बड़ी आव-भगत की। दोनों भ्राताओं ने सन्तों के चरणों में बैठकर श्री वृन्दावन की माधुरी सुनाने का निवेदन किया। मण्डली के वृद्ध संत श्री नवलदास जी के द्वारा श्री वृन्दावन के गौरव श्री हित हरिवंश महाप्रभु की
महिमा का वर्णन सबके समक्ष किया। महाप्रभु जी की वार्ता सुनकर हृदय प्रेमानन्द सेभर गया। शरीर पुलकित हो गये। कंठ गद्गद हो गये। दोनों ने शीघ्र से शीघ्र चलकर महाप्रभु के श्री चरणों की अभय शरण ग्रहण करने का निश्चय किया। काल का क्रम किसी कारणवश वे तीन माहतक वृन्दावन न जा पाये। तभी वृन्दावन से साधुओं की एक मण्डली आई। जिस प्रकार प्रेमी सर्वत्र अपनी प्रिय वस्तु को ढूंढ़ता है ठीक उसी प्रकार दोनों भ्राताओं ने महाप्रभु जी का परिचय उन संतों सेपूछा। उन साधुओं में अग्रणी संत ने बड़े दुःख भरे स्वर मेें कातर वाणी से कहा- ‘‘पुत्रों! पृथ्वी का मंगल-सौभाग्य लुट गया, वृन्दावन सूना हो गया। रसिक सभा का श्रृंगार उजड़ गया। आचार्य पाद अपनीलीला संवरण करे चले गए।-- संतों की बात सुनकर दोनों भाई मूच्र्छित होकर गिर पड़े। दो घड़ी तक वहाँ शोक का साम्राज्य छा गया। संतों के बहुत प्रयत्न के बाद दोनों की मूच्र्छा टूटी और ‘हा हरिवंश’‘हा हरिवंश’ कहकर रूदन करने लगे। किसी प्रकार संतों ने उन्हें धीरज दिया। तभी चतुर्भुजदास जी ने श्रीवृन्दावन चलकर उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचन्द्र जी महाराज से ही वैष्णवी दीक्षा मंत्र ग्रहणकरने का निश्चय किया। परंतु दामोदर दास जी चतुर्भुजदास जी के साथ श्री वृन्दावन नहीं गए। वे महाप्रभु जी को ही अपना सर्वस्व मान चुके थे। दामोदरदास जी अपने घर के बाहर एक घने वृक्ष कीछाया में बैठ गए और एक कठोर प्रतिज्ञा ली ‘‘यदि यह सत्य है कि श्री हिताचार्य चरण श्री कृष्ण की महामोहिनी वंशी है, वे जीवों का कल्याण करने के लिए अवतरित हुए थे तो मुझ पर भी कृपा करें।’’वे अन्न, जल का त्याग कर ‘‘श्री हरिवंश, श्री हरिवंश’ की रट में तल्लीन हो गए। एक, दो, तीन क्रमशः आठ दिन व्यतीत हो गए। अकस्तात् उनके मानस पटल पर एक दृश्य अंकित हुआ। उस दृश्य मेंदिव्य गरिमयी यमुना बह रही थी, लता-दु्रम-मण्डित वृन्दावन शोभा पा रहा है। सामने प्रौढ़ आयु सम्पन्न कोई गौर महापुरूष खड़े हैं। उन्होंने फिर आँखें खोल दी तब भी वही दृश्य। वे महापुरूष अपनेकृपापूर्ण नेत्रों से प्रेम की वर्षा श्री दामोदर दास जी पर कर रहे थे। वे महापुरूष और कोई नहीं श्री हित हरिवंश महाप्रभु ही थे। जो अपने सेवक के लिए पुनः आए। महाप्रभु के चरणों में लिपट कर वे फूट-फूट कर रोने लगे। महाप्रभु ने दामोदर दास को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। उपासना मंत्र और नित्य विहार का स्वरूप श्री दामोदर दास जी को प्रदान कर अंतध्र्यान हो गए। श्री दामोदर दास जीदामोदर से सेवक हो गए। उधर श्री चतुर्भुजदास जी वृन्दावन में श्री वनचन्द्र जी के चरण-आश्रित होकर रसरीति का निर्वाह करने लगे। एक दिन चतुर्भुदास जी ने दामोदर का परिचय अचार्य-चरण कोदिया। श्री वनचन्द्र जी महाप्रभु के प्रति श्री दामोदर जी की आसक्ति पर रीझ गए और चतुर्भुज दास जी से उन्हें वृन्दावन ले लिवाने को कहा। चतुर्भुजदास जी को श्रीवृन्दावन आए लगभग छः मासबीत चुके थे। चतुर्भुजदास जी अभी मार्ग में ही थे कि उधर सेवक जी की दिव्यानुभूतिमयी प्रेम सिद्धान्त पारदर्शी वाणी आचार्य पाद (श्री वनचन्द्र जी) के पास पहुँची। आचार्य ने इस अद्भुत वाणी कादर्शन एवं पठन करके सेवक दामोदर पर अपने इष्टदेव श्री राधावल्लभ लाल की सम्पूर्ण सम्पत्ति न्यौछावर करने की प्रतिज्ञा कर ली। इधर चतुर्भुजदास जी गढ़ा पहुँचे और दामोदर जी की दशा देखी।वह देखकर समझ गऐ कि इन पर प्रेम प्रभु की कृपा हुई है। दोनों भाई श्रीवृन्दावन के लिए निकले की उन्हें मार्ग में पता चला कि आचार्य पाद ने एक प्रतिज्ञा ली है। इस प्रतिज्ञा से सेवक दामोदर कोश्रीवन जाने में बहुत संकोच हुआ। सेवक जी ने निर्णय लिया कि वे भेष बदलकर वृन्दावन में जाऐंगे। परन्तु लाख छुपाने पर भी सेवक जी आचार्य पाद की दृष्टि में आ गए। तब सेवक जी ने आचार्यपाद से निवेदन किया कि ‘आप श्रीजी प्रसाद भण्डार लुटा दे और अमनिया भण्डार सेवा में उपयोग करने की कृपा करें। आचार्य पाद ने ऐसा ही किया। सेवक जी को अभी वृन्दावन आए केवल सात दिनही हुए थे। वो दिव्य रासमण्डल जहाँ सारा संत समाज बैठा हुआ था अकस्मात् सेवक जी खड़े हुए और ‘हा हरिवंश’ कहते हुए एक वट वृक्ष में विलीन हो गए। सेवक जी ने हित की उपासना का आधार श्रीसेवक वाणी में वर्णन किया हे। सेवक वाणी और कुछ नहीं महाप्रभु जी का स्वरूप है।
सम्वत् 1575 वि. की श्रावण-शुक्ल-तृतीया को एक पवित्र एवं विद्वान् ब्राह्मण के
यहाँ गढ़ा धाम में हुआ। आपके पिता दो भाई थे। दोनों भाइयों से दो सन्तानें हुई बड़े भाई से
चतुर्भुजदास और छोटे से श्री दामोदर दास बचपन से ही दोनों बालक होनहार मेधावी और
सुन्दर थे समय बीतने के साथ दोनोंभ्राता निरन्तर भजन-पूजन, कथा कीर्तन में ही अपना
सारा समय बिताने लगे। बाल्यकाल में दोनों भ्राताओं को भक्ति-शास्त्रों की सुंदर शिक्षा
प्रदान की गई जिससे उनका संतों के प्रति अनुराग बढ़ा उन दिनों धर्म का प्रसार करने
के लिए आचार्य एवं संत महात्मागण अपने साथ बहुत से सन्तों को लेकर जमात बनाकर
स्वतंत्र भाव से यहाँ-वहाँ विचरण किया करते थे। श्री वृंदावन की एक साधुमण्डली ने इन भक्त
भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर इनके घर निवास किया। इन्होंने भी सन्तों की बड़ी आव-भगत की। दोनों भ्राताओं ने सन्तों के चरणों में बैठकर श्री वृन्दावन की माधुरी सुनाने का निवेदन किया। मण्डली के वृद्ध संत श्री नवलदास जी के द्वारा श्री वृन्दावन के गौरव श्री हित हरिवंश महाप्रभु की
महिमा का वर्णन सबके समक्ष किया। महाप्रभु जी की वार्ता सुनकर हृदय प्रेमानन्द सेभर गया। शरीर पुलकित हो गये। कंठ गद्गद हो गये। दोनों ने शीघ्र से शीघ्र चलकर महाप्रभु के श्री चरणों की अभय शरण ग्रहण करने का निश्चय किया। काल का क्रम किसी कारणवश वे तीन माहतक वृन्दावन न जा पाये। तभी वृन्दावन से साधुओं की एक मण्डली आई। जिस प्रकार प्रेमी सर्वत्र अपनी प्रिय वस्तु को ढूंढ़ता है ठीक उसी प्रकार दोनों भ्राताओं ने महाप्रभु जी का परिचय उन संतों सेपूछा। उन साधुओं में अग्रणी संत ने बड़े दुःख भरे स्वर मेें कातर वाणी से कहा- ‘‘पुत्रों! पृथ्वी का मंगल-सौभाग्य लुट गया, वृन्दावन सूना हो गया। रसिक सभा का श्रृंगार उजड़ गया। आचार्य पाद अपनीलीला संवरण करे चले गए।-- संतों की बात सुनकर दोनों भाई मूच्र्छित होकर गिर पड़े। दो घड़ी तक वहाँ शोक का साम्राज्य छा गया। संतों के बहुत प्रयत्न के बाद दोनों की मूच्र्छा टूटी और ‘हा हरिवंश’‘हा हरिवंश’ कहकर रूदन करने लगे। किसी प्रकार संतों ने उन्हें धीरज दिया। तभी चतुर्भुजदास जी ने श्रीवृन्दावन चलकर उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचन्द्र जी महाराज से ही वैष्णवी दीक्षा मंत्र ग्रहणकरने का निश्चय किया। परंतु दामोदर दास जी चतुर्भुजदास जी के साथ श्री वृन्दावन नहीं गए। वे महाप्रभु जी को ही अपना सर्वस्व मान चुके थे। दामोदरदास जी अपने घर के बाहर एक घने वृक्ष कीछाया में बैठ गए और एक कठोर प्रतिज्ञा ली ‘‘यदि यह सत्य है कि श्री हिताचार्य चरण श्री कृष्ण की महामोहिनी वंशी है, वे जीवों का कल्याण करने के लिए अवतरित हुए थे तो मुझ पर भी कृपा करें।’’वे अन्न, जल का त्याग कर ‘‘श्री हरिवंश, श्री हरिवंश’ की रट में तल्लीन हो गए। एक, दो, तीन क्रमशः आठ दिन व्यतीत हो गए। अकस्तात् उनके मानस पटल पर एक दृश्य अंकित हुआ। उस दृश्य मेंदिव्य गरिमयी यमुना बह रही थी, लता-दु्रम-मण्डित वृन्दावन शोभा पा रहा है। सामने प्रौढ़ आयु सम्पन्न कोई गौर महापुरूष खड़े हैं। उन्होंने फिर आँखें खोल दी तब भी वही दृश्य। वे महापुरूष अपनेकृपापूर्ण नेत्रों से प्रेम की वर्षा श्री दामोदर दास जी पर कर रहे थे। वे महापुरूष और कोई नहीं श्री हित हरिवंश महाप्रभु ही थे। जो अपने सेवक के लिए पुनः आए। महाप्रभु के चरणों में लिपट कर वे फूट-फूट कर रोने लगे। महाप्रभु ने दामोदर दास को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। उपासना मंत्र और नित्य विहार का स्वरूप श्री दामोदर दास जी को प्रदान कर अंतध्र्यान हो गए। श्री दामोदर दास जीदामोदर से सेवक हो गए। उधर श्री चतुर्भुजदास जी वृन्दावन में श्री वनचन्द्र जी के चरण-आश्रित होकर रसरीति का निर्वाह करने लगे। एक दिन चतुर्भुदास जी ने दामोदर का परिचय अचार्य-चरण कोदिया। श्री वनचन्द्र जी महाप्रभु के प्रति श्री दामोदर जी की आसक्ति पर रीझ गए और चतुर्भुज दास जी से उन्हें वृन्दावन ले लिवाने को कहा। चतुर्भुजदास जी को श्रीवृन्दावन आए लगभग छः मासबीत चुके थे। चतुर्भुजदास जी अभी मार्ग में ही थे कि उधर सेवक जी की दिव्यानुभूतिमयी प्रेम सिद्धान्त पारदर्शी वाणी आचार्य पाद (श्री वनचन्द्र जी) के पास पहुँची। आचार्य ने इस अद्भुत वाणी कादर्शन एवं पठन करके सेवक दामोदर पर अपने इष्टदेव श्री राधावल्लभ लाल की सम्पूर्ण सम्पत्ति न्यौछावर करने की प्रतिज्ञा कर ली। इधर चतुर्भुजदास जी गढ़ा पहुँचे और दामोदर जी की दशा देखी।वह देखकर समझ गऐ कि इन पर प्रेम प्रभु की कृपा हुई है। दोनों भाई श्रीवृन्दावन के लिए निकले की उन्हें मार्ग में पता चला कि आचार्य पाद ने एक प्रतिज्ञा ली है। इस प्रतिज्ञा से सेवक दामोदर कोश्रीवन जाने में बहुत संकोच हुआ। सेवक जी ने निर्णय लिया कि वे भेष बदलकर वृन्दावन में जाऐंगे। परन्तु लाख छुपाने पर भी सेवक जी आचार्य पाद की दृष्टि में आ गए। तब सेवक जी ने आचार्यपाद से निवेदन किया कि ‘आप श्रीजी प्रसाद भण्डार लुटा दे और अमनिया भण्डार सेवा में उपयोग करने की कृपा करें। आचार्य पाद ने ऐसा ही किया। सेवक जी को अभी वृन्दावन आए केवल सात दिनही हुए थे। वो दिव्य रासमण्डल जहाँ सारा संत समाज बैठा हुआ था अकस्मात् सेवक जी खड़े हुए और ‘हा हरिवंश’ कहते हुए एक वट वृक्ष में विलीन हो गए। सेवक जी ने हित की उपासना का आधार श्रीसेवक वाणी में वर्णन किया हे। सेवक वाणी और कुछ नहीं महाप्रभु जी का स्वरूप है।
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